Aug 27, 2019

Dr. Jog Raj 'Yog', Ph.D - डॉ. जोग राज 'योग', पीएचडी


Personal details:
Father’s Name: Late Shri Swaran Lal
Mother’s Name _) Late Smt. Gharo Devi
Date of Birth _) 11th July 1957

After qualifying UPSC Direct recruitment appointed on the Post of Principal, Urdu Teaching and Research Centre, Solan, Under CIIL Min. of Human, Resource and Development, Deptt. of Higher, Education, Govt. of India on June 20th, 1995.

Awards
> Junior Red Cross Excellence awards at Nahan.
> Ghalib Society Award, Solan
> Sarw Dharam Trust Award, Jammu
> Hiwanti Printing Press Award, Paonta Sahib, Sirmour Distt. (H.P.)

Awards

Padam Shri (an award given by Dr Dubey, Zemini Academy of Language, Panipat (Haryana) in 2002.

Excellent Services towards Hindi, Urdu and other Regional Languages
> Awarded for Excellent Services towards Urdu, Hindi and other Regional Languages
of India by Jaag Rajput, Ludhiana (Pb.) in 2010.
> Awarded for Excellent Services towards Urdu by Citizen Education, Malegaon, Maharashtra in 2013.
> Awarded for Useful Multilingual Glossary in Urdu, Kashmiri, Panjabi, Dogri, with IPA in 2014 by Panjabi University Patiala (Pb.)
> In 2015, Presented Award by Former Chief for Excellent work on mother Tongues Languages of Northern regions at Panjabi University Patiala (Pb.) by Dy. C.M., Punjab Govt.


Books published:

> Ayain” (Constitution) (Co-Ed.) Shiv Shakti Sat Guru Kabir Sarw, Dharam Welfare Trust. Regd. J & K and Govt. of India (1991).
> Udas Khamoshi (collection of short stories in Urdu published in Satya Prakashan, Solan [H.P] 2004. This book is under Translation in Hindi, Dogri and Punjabi.
> Zakhmi Khawab (collection of short Poetry in Urdu (personal) 2004 Sehga Press, Solan [H.P]. This book is under Translation in Hindi, Dogri and Punjabi.
> “Fikri Zaviye” 2008 Simant Parkashna, Darya Ganj, New Delhi 110002.
> Farhang-e-Alfaz Ba Lihaz-e-Jamaa-Waahid completed
> Hum Ek Hain (National Integration Poem) in Urdu as supplementary material for 2nd Language Learner.
> Urdu-Himachali Dictionary
> Sheri-O-Nasri Asnaaf Ta’ruf Aur Tadris

Articles Published:
A dozen of articles have been published in various journals of repute, i.e. “Fiqro Fun” and Tamir-e-Haryana and Jamna Tatt etc. and in various newspapers.

Translation
Translated a Noval ‘Subah Dopahar aur Sham’ Urdu to Hindi written by Dr. S.P. Anand, Ex Director, Correspondence Deptt., Panjab University, Chandigarh (from Urdu to Hindi) in 1989.


Radio & Television

Participated in many Radio and Television cultural, social and national integration programmes at Radio station, Shimla and Jammu and these programmes have been broadcasted on Doordarshan, Delhi, Jallander, Shimla and Jammu.


Examiner

B.A, M.A ,M.Phil and some ‘Public Service Commission’ of some State (Confidential)

Specialization
> Urdu Composition, Urdu Fiction, Novel and Short stories etc.
> Sant Math Bhakti Tehriq in India
> TOT trainer of professionals.


He was also in charge of NARAKAS (नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति), Solan in 2015


Mar 19, 2019

Our Hero Sh. Lekhraj Bhagat, IPS - हमारे हीरो श्री लेखराज भगत, आईपीएस

श्री लेखराज भगत, आईपीएस

(यह आलेख श्री लेखराज भगत, आईपीएस की सुपुत्री श्रीमती स्वर्णकांता के उद्गार हैं)
(1)
मेरे पिता श्री लेखराज भगत जी का जन्म सन 1930 में सियालकोट में हुआ था. एक बहुत ही साधारण परिवार में उन्होंने जन्म लिया. उनसे छोटी दो बहनें थीं. वे अपने परिवार में सबसे बड़े थे. उनके पिताजी (मेरे दादा जी) बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे. उन्होंने 5 या 6 क्लास ही पास की थी. दादाजी के दो बेटे और दो बेटियां थीं. दादी जी भी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकी थीं. बड़े होने पर मेरे पिताजी का दाख़िला गवर्नमेंट स्कूल में हुआ. जब वे नवीं क्लास में गए तब उनके गांव के आसपास कोई स्कूल नहीं था. इसलिए वे अपने ननिहाल में गए. उनके ननिहाल के पास एक आर्य मॉडल स्कूल था.  उनका वहां एडमिशन हो गया. उनकी पुढ़ाई का ज़्यादातर खर्चा उनके मामाजी दिया करते थे. मेरे पिताजी एक-दो महीने के बाद ही घर जा पाते थे. अपने ननिहाल के प्रति मेरे पिताजी के मन में बहुत प्रेम और लगाव था. परिवार में नाना-नानी और दो मामा थे.

जब पिता जी ने दसवीं क्लास का इम्तिहान दिया तभी 1947 में भारत का विभाजन हो गया. विभाजन की वजह से पिता जी इधर भारत में गए. सबसे पहले वे जालंधर लगाए गए कैंप में रहे. पिताजी का एक छोटा भाई भी था उनके साथ. उन हालात में पिता जी का जो छोटा भाई चल बसा जिसकी वजह से मेरी दादा-दादी बहुत सदमें में आ गए. उन्हें लगा कि ऐसे हालात में हमारा कोई बच्चा नहीं बचेगा. फैसला हुआ कि जम्मू में मेरे पिताजी के ननिहाल हैं. वहाँ भेजने से बच्चों का लालन-पालन ठीक से हो जाएगा.

उस समय पिता जी के दादाजी भी जिंदा थे जो खड्डियों (हथकरघा) पर कपड़ा बुनने का काम किया करते थे. इस समय मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा, शायद उनके गांव का नाम पत्तन था, वहां चले गए. जम्मू में जहाँ पिताजी का ननिहाल था वहां एक तवी नाम की नदी है. वहीं उसके किनारे पर एक गांव है उनका, वे वहां बस गए. मेरे दादाजी के पिता (मेरे परदादा जी) को जम्मू में आर. एस. पुरा तहसील के एक गांव ‘ढींढें कलां’, वहां उनको थोड़ी-सी ज़मीन मिल गई और उन्होंने वहाँ रहना शुरू कर दिया. कुछ सालों के बाद मेरे परदादा जी का देहांत हो गया.

पिताजी को दसवीं का सर्टिफिकेट नहीं मिला था क्योंकि दसवीं क्लास की परीक्षा उन्होंने पाकिस्तान में दी थी और देश का बँटवारा हो गया था. बहुत कोशिशों के बाद उनको सर्टिफिकेट मिला. उसके बाद उन्होंने ग्यारहवीं-बारहवीं, जिसे उन दिनों एफ.ए. कहते थे, वो पास की. वो पास करने के बाद उन्हें अगली ज़रूरत नौकरी की थी. जम्मू में नौकरी मिलने नौकरी मिलना कठिन था क्योंकि वहां अफ़रा-तफ़री का माहौल था.

1950 में पिताजी की शादी हो गई. शादी के बाद परिवार पालना था इसलिए नौकरी पाने की जल्दी थी. तभी 1952 में ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली में अस्सटेंट की नौकरी मिल गई. वहां उन्होंने जॉइन कर लिया. वहां पर उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. उस समय क्लर्क की नौकरी भी बड़ी चीज़ मानी जाती थी. उनके सीनियर उन्हें बहुत पसंद करते थे. पिता जी की रिहाइश शकूरबस्ती में थी. ऑफिस से घर दूर था. शुरू में वे साइकिल पर ऑफिस जाते थे. रात 11,11.30 उन्हें छुट्टी होती थी तो वापसी पर उन्हें कई बार महसूस हुआ कि कोई उनका पीछा करता है. पिताजी ने अपने बॉस को कहा कि कल से मैं नहीं आऊंगा. उसने पूछा कि 'क्या हो गया?' उन्होंने बताया कि 'कोई मुझे रात को रास्ते में डराता है, अब मैं नहीं आऊंगा.' उनकी बात समझते हुए बॉस ने उनके लिए एक सरकारी अंबेसडर कार का प्रबंध कर दिया और कहा कि 'आज से तुम कभी साइकिल पर नहीं आओगे. गाड़ी जाएगी और वहां से लेकर आएगी.' इस तरह पिता जी बताया करते थे कि जब मैं क्लर्क था तब मुझे गाड़ी लेने आया करती थी.

1962 में उनकी आंखों में कुछ तकलीफ़ हुई. मुंबई जा कर उन्होंने इलाज कराया. वहीं उन्होंने अपने एक दोस्त को देखा कि वह बहुत-सी किताबें लेकर बैठा रहता था और पढ़ रहता था. पिताजी ने पूछा कि ये किन विषयों की किताबें हैं. जिन्हें आप इतना पढ़ते हो. तो उसने बताया कि एक इम्तेहान होता है - आईएएस का, और वो देश में सरकारी नौकरी का सब से ऊँचा मुक़ाम होता है. पिताजी की जिज्ञासा बढ़ी और उन्होंने उससे बहुत सी जानकारी ली कि क्या करना है, क्या पढ़ना है. जानकारी लेकर जब वे वापिस दिल्ली पहुंचे तब तक उनके मन में इस बारे में इतना गहरा रुझान पैदा हो गया था. उन्होंने फटाफट ढेर सारी पुस्तकें खरीदीं. (इस बीच उन्होंने बी.ए. कर ली थी और इंग्लिश मास्टर्स का फर्स्ट ईयर भी जॉइन किया था. उनकी वे पुस्तकें मेरी एम.ए. इंगलिश में बहुत काम आई. मैंने वो पुस्तकें बहुत सहेज कर रखी हुई थीं.)

मेरी मां उनके साथ ही दिल्ली में रहती थी. जब परीक्षा की तैयारी का समय आया तो मां को उन्होंने यह कह कर गाँव भेज दिया कि मेरे सामने एक लक्ष्य है और मुझे उसके लिए बहुत फोकस चाहिए. परिवार मेरे साथ रहेगा तो शायद मैं उतना फोकस न कर पाऊं जितना ज़रूरी है.

(2)
उन्होंने 1963 की आईएएस/आईपीएस की परीक्षा दी और क्वालीफाई करने के बाद सिलेक्शन हो गया. 1964 में उन्होंने प्रोबेशनर के तौर पर जॉइन कर लिया. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उन्होंने 1965 में एडीशनल एस.पी. करनाल के तौर जॉइन किया. तब उनका वेतन ₹450 था. समय ऐसा था कि उस तनख़्वाह में बरकत बहुत थी. जो रिहाइशी कोठी मिली थी वो बहुत बड़ी और आलीशान थी. किराया 75 रुपए था. उसमें एक सर्वेंट क्वार्टर भी था. तभी हम ने पहली बार देखा कि घर में एक सोफा सेट होता है, बेडरूम होते हैं, वॉशरूम होता है. इन सारी चीजों का हमें पहली बार पता चला, उस समय मैं तीसरी क्लास में पढ़ती थी. घर में सर्वेंट वगैरा सब थे. पिताजी को लेने जीप आती थी. एक्सरसाइज़ के लिए उन्होंने साइकिल रखी हुई थी. कोठी के सामने ही एक गवर्नमेंट स्कूल था जहाँ हमारा एडमिशन होना था. मुझे और मेरी बड़ी बहन आदर्श कांता को डैडी एडमिशन के लिए जब लेकर गए तब डैडी ने यूनिफॉर्म पहनी हुई थी. जैसे ही हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ बैठे बच्चे खड़े होकर सैल्यूट करने लगे. हम हैरान थे कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे. हमें पता ही नहीं था कि यूनिफॉर्म वाले व्यक्ति की समाज में कितनी इज़्ज़त होती है. बच्चों के उस व्यवहार से हमें पता चला कि हमारे पिता जी का एक रुतबा है. जैसे ही हम प्रिंसिपल के ऑफिस में पहुंचे तो वे बहुत सम्मान के साथ उठ खड़े हुए. उन्होंने पिता जी से हाथ मिलाया और उनकी आपस में बहुत सी बात-चीत हुई. घर के सामने ही स्कूल था. एक ऑर्डरली हमें वहाँ छोड़ने जाता था. वही लेकर भी आता था.

उसके बाद हमारे पिता जी की ट्रांसफ़र पहले तो कुल्लू-मनाली हुई थी लेकिन अभी रास्ते में थे कि खबर मिली कि पंजाब का विभाजन करके पंजाब-हरयाणा बना दिया गया था. इसी सिलसिले में पिता जी को शिफ्ट करके 44वीं बटालियन, बीएसएफ जम्मू में तैनात कर दिया गया था.

जम्मू में पोस्टिंग का वो जो दौर हमारे जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण  समय था. पिता जी का स्टेटस और इतने रिश्तेदार हमारे घर आते थे कि कई बार हम घर के पर्दे उतारकर बिस्तर बनाते थे ताकि जो कोई आए वो एडजस्ट हो जाए. हमारा घर गांधीनगर में था और पिताजी की पोस्टिंग राजौरी में थी. वे महीना 15 दिन के बाद घर आते थे. हमारी पढ़ाई की वजह से उन्होंने हमें जम्मू के गांधीनगर में रखा था ताकि हमारी पढ़ाई निरंतर हो और उसमें कोई व्यवधान न पड़े. घर में नौकर-चाकर, खाना बनाने वाला और एक ऑर्डरली होता था, उन सब के ऊपर एक हवलदार होता था जो हर रोज़ सुबह-शाम आकर जानकारी लेता था कि घर में कुछ सामान तो नहीं लाना है. हमारे ननिहाल वाले भी अकसर आते रहते थे. कई बार तो घर पर जैसे मेला लगा रहता था. मुझे याद है कि कई बार तो 70-70 कप चाय बनती थी. 



पहले हम चार बहनें थीं. उसके बाद जब पिता जी कमांडेंट थे तब मेरे भाई का सन 1968 में जन्म हुआ. बहुत से रिश्तेदार आए. बहुत बड़ा फंक्शन किया गया. तब हमने देखा कि इतना बड़ा टेंट लगा था जैसे सारी दुनिया उसमें आ सकती थी. हम बड़े हो रहे थे और समझदार भी. हमारा लड़कपन यह सब देख कर प्रफुल्लित हो उठा था. वहाँ रहते हुए ईश्वर ने हमें मौका दिया था कि हर किसी को बस देना ही देना था. 1969 में पिता जी ने जालंधर में कमांडेंट के तौर पर जॉइन किया. तब भी हम बच्चे स्कूल में पढ़ रहे थे. पापा ने सोचा कि फिलहाल सारा परिवार साथ नहीं ले जाना चाहिए. इसलिए बड़े तीन भाई-बहन वहीं रहे और छोटे मम्मी-डैडी के साथ. शुरू में कुछ अजीब लगा. वहां बड़े-बड़े टेंटों में रहना था. यह भी एक नई बात थी. लेकिन सर्विसिज़ में वो टेंट भी जैसे स्वर्ग होता है. बहुत ही बड़े और सुंदर टेंट थे. उस दौर को भी हमने बहुत एंजॉय किया और फिर 1971 में पिता जी ने डी.आई.जी. ट्रैफिक के तौर पर चंडीगढ़ में जॉइन किया. जब हम चंडीगढ़ आए तब एक नई दुनिया में आ गए. वो दुनिया ऐसी थी कि पिताजी के नए सर्कल के कारण बहुत से नए लोगों के साथ दोस्ती हुई, पहचान हुई. और फिर अपने लोगों से मिल कर बहुत ही अच्छा लगता था. फिर हमने 11 सेक्टर में घर लिया. जैसे ही हमने घर लिया वैसे ही चंडीगढ़ में हमारी भगत बिरादरी के लोगों से मिलना-जुलना बहुत बढ़ गया. जब हम आए तो उस समय हमारे एक अंकल हुआ करते थे सीएसआईओ में - श्री एम.आर. भगत. अब वो नहीं रहे. बाद में उनका देहरादून ट्रांसफर हो गया था और वे शिफ्ट कर गए. आज वो पति-पत्नी दोनों नहीं हैं. सब से ज़्यादा हम उन्हीं के यहाँ जाया करते थे. श्री एम. आर. भगत जी की पत्नी ने भी हमारा ख़ूब स्वागत किया. इस तरह करते-करते हमारी खूब सारी जानकारी सब के साथ हो गई. वही हमें पहले पहल श्री ज्ञानचंद, आईएएस के घर लेकर गए थे. श्री इंद्रजीत मेघ और श्री केसर नाथ अंकल और भगत बिरादरी के बहुत से लोगों से मेलजोल हुआ. इसी दौरान हमारा परिचय श्री मिल्खीराम भगत, पीसीएस से भी हुआ. मेरी बड़ी बहन आदर्श कांता ने 1974 में पंजाब पंजाबी यूनिवर्सिटी में एम.ए. हिंदी जॉइन की थी. उसने जीसीजी से ग्रेजुएशन किया था. मैंने 1973 में प्रेप जॉइन किया था.

फिर 1973 में ज्ञानी जैल सिंह डैडी को एसएसपी के तौर पर ले गए अपने जिले फरीदकोट में ले गए. हम अक्तूबर 1972 में चंडीगढ़ से गए थे और उसके बाद हम 1974 में वापस आ गए. मुझे याद है कि अंग्रेजों के टाइम जिस जेल में ज्ञानी ज़ैल सिंह को रखा गया था वह जगह ज्ञानी ज़ैल सिंह जी ने डैडी को दिखाई थी और वहां कई फोटोग्राफ़ खींचे गए थे, इसलिए मुझे वह याद है. 1974 में हम फिर से चंडीगढ़ आ गए उसके बाद हम लोग ज्यादातर यहीं रहे. 1976 में डैडी ने कपूरथला में एसएसपी के तौर पर जॉइन किया. फ़रीदकोट और कपूरथला में जो घर उन्हें मिले वो कभी वहां के महाराजाओं के घर थे जो बहुत आलीशान थे. उनकी सीढ़ियां इतनी मजबूत थीं कि हाथी उन पर चढ़ जाए...बहुत ही आलीशान….
जितने भी स्टेशनों पर डैडी रहे वहाँ, मुझे 1966 का याद है, जब वह बीएसएफ में थे, तब उन्होंने सैंकड़ो लोगों को नौकरियाँ पाने में मदद की और इस तरीके से हज़ारों लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाने में अपना सहयोग दिया. जो लोग पढ़े-लिखे नहीं थे, वो हर कोई बीएसएफ में. आज उनके पोते-पोतियां हैं जो हमें कभी-कभार मिलते रहते हैं. जहां पर भी हमारे और डैडी के नानके-दादके जाते हैं वो हमें मिलते हैं वे पुरानी बातों को याद करते हैं और डैडी का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने उन्हें एक नया रास्ता दिखाया था. ऐसी बातें सुन कर मुझे बहुत खुशी होती है कि अपना पोज़िशन से डैडी ने उनके लिए जो बन पड़ा वो कर किया. फरीदकोट में भी बहुत से लोग, वो चाहे कहीं से भी आए हों, किसी भी जाति से आए हों, उनको नौकरी पाने में डैडी की मदद मिल जाती थी. मैं चंडीगढ़ में कॉलेज के हॉस्टल में थी. 1977 में मेरे होस्टल में एक बाबा जी थे जो कालेज में गार्ड थे. उनका एक पोता था. बाबा जी का काम था कि वो रोज़ सुबह मुझे न्यूज़ पेपर पकड़ाने आते थे. एक दिन उन्होंने मुझे कहा कि 'आप इतने काम कराते हो आप एक काम मेरा भी करा दो. मेरा एक पोता है उसे नौकरी लगवा दो.' मैंने कहा 'ठीक है. जब मैं घर जाऊंगी तो उसे आप मेरे साथ भेज दो.' मैं जब भी कभी चंडीगढ़ से घर जाती थी तो मेरे साथ कोई ना कोई रहता था. लड़का मेरे साथ गया और वहाँ जा कर मैंने उसे पिताजी से परिचित कराया. वो हमारे घर पर ही रुका. मैंने पिता जी से कहा कि यह दसवीं पास है. इसे कहीं एडजस्ट करा दो. उन्होंने कहा कि कल यह मेरे ऑफिस में आ जाए, मैं देखता हूँ. उसके बाद मैं चंडीगढ़ आ गई. और अगली बार जब बाबा जी मिले तो उन्होंने बताया कि उनका लड़का चंडीगढ़ आया है वो पुलिस में भर्ती हो चुका है. लगा जैसे किसी ने चुटकी बजाई हो. मुझे याद है 1976 में जब हम फिल्लौर में थे, तब हमारी बिरादरी के और ददिहाल और ननिहाल के कई लोग, अन्य जान-पहचान के लोग किसी न किसी काम से आते रहते थे. वहाँ भी डैडी ने लोगों की मदद की. आज डैडी के बहुत से जान-पहचान के लोग राजस्थान में बसे हैं. उन दिनों शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने नौकरी के लिए मदद माँगी हो और उसकी मदद न हुई हो. कइयों को तो हम जानते तक नहीं थे लेकिन उनको सहायता मिली. इस तरह से हज़ारों लोगों के जीवन को पिता जी ने छुआ और उनकी ज़िंदगी बदल गई.
लेखिका - श्रीमती स्वर्णकांता
विशेष उल्लेख

मेघ समुदाय के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता श्री इंद्रजीत मेघ ने अपनी यादें साझा करते हुए बताया है कि श्री लेखराज जी ने न केवल रोज़गार के मामले में बल्कि गंभीर अदालती मामले सुलटाने में भी मेघ समुदाय के लोगों की मदद की. वे बताते हैं कि जब भी वे कोई काम लेकर उनके यहाँ गए कभी खाली हाथ नहीं लौटे. काम कराने के लिए लेखराज जी साथ हो लेते थे. इस नज़रिए से श्री लेखराज जी एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी देखे जाते हैं. श्री इंद्रजीत ने इस बात का विशेष उल्लेख किया है कि लेखराज जी ने कुछ लोगों को चल-अचल संपत्ति आदि के रूप में पूँजी दे कर उनके कामकाज में मदद की.


भगत विकास सभा के संचालक प्रोफेसर के. एल. सोत्रा बताते हैं कि वे चंडीगढ़ प्रवास के दौरान अक्सर श्री लेखराज भगत जी से मिलते रहे. लेखराज जी का व्यक्तित्व शानदार था. शारीरिक सौष्ठव सैनिकों जैसा था. वे सादा विचारों के व्यक्ति थे. सबसे बहुत अपनत्व के भाव से मिलते थे और सभी की सहायता के लिए तत्पर रहते थे.

मेघ समाज पर शोध करने वाले डॉ. ध्यान सिंह ने बताया है कि श्री लेखराज जी में एक बहुत ही विनम्र पुलिसवाला भी था जो सामाजिक तौर पर मिलनसार था और सभी परिस्थितियों में ढल जाने वाला उनका तरल और सरल स्वभाव था. कई सामाजिक कार्यक्रमों में वे दरी पर या जमीन पर बैठकर सहभागिता करते थे जो उनके गरिमापूर्ण व्यक्तित्व की शानदार छवि को और भी बढ़ा कर देता था.



Mar 18, 2019

तुलसीराम, ऑनरेरी सूबेदार मेजर

किसी दिन सूरज बहुत खुशी लेकर आता है. कल का दिन ऐसा ही था.

संपादक ‘मेघ-चेतना’ के नाम पर एक पत्र अख़्नूर (जम्मू-कश्मीर) से प्राप्त हुआ जिसमें एक ऑनरेरी सूबेदार मेजर तुलसीराम को सेना का ‘वीरचक्र’ मिले होने की सूचना मिली.

हालांकि मैंने हाल ही में ‘मेघ-चेतना’ के संपादकीय कार्य से छुट्टी ले ली है तथापि पिछले अंकों में छपे मेरे पते पर एक लिफ़ाफ़ा डाक से मिला जिसे मैंने खोल लिया (इसके लिए ‘ऑल इंडिया सभा, चंडीगढ़’ से क्षमा). लिफ़ाफ़े में एक पत्र मिला जिसके साथ कई क़ाग़ज़ नत्थी थे. 17-03-2019 को मिले अग्रेषण-पत्र (forwarding letter) पर अख़्नूर के एक सज्जन डॉ. के.सी. भगत के हस्ताक्षर थे और उसके साथ संलग्न पत्र पर डॉ. के.सी. भगत, प्रेज़िडेंट, जागृति समाज (रजि.) और ऑनरेरी कैप्टेन बी.आर भगत, जनरल सेक्रेटरी, एक्स-सर्विसमैन एसोसिएशन, अख़्नूर के हस्ताक्षर थे. पत्र 10 मार्च, 2019 को लिखा गया था. तीसरे पृष्ठ पर एक रौबदार सैनिक की फोटो छपी थी जिसके नीचे जानकारी दी गई थी वे ‘वीरचक्र’ प्राप्त तुलसीराम जी हैं. 1962 के भारत-चीन युद्ध में वे लद्दाख में रेमू नामक एक छोटी चौकी के कमांडर थे और उनके साथ चार अन्य सैनिक थे. जब चीनी फौज ने हमला किया तब इन कुल पाँच सैनिकों ने उनके हमले का सामना किया. लड़ाई में लगभग 200 चीनी सैनिक हताहत हुए. तुलसीराम के पास लाइट मशीन गन (LMG) थी जिसे तुलसीराम खुद चला रहे थे. चौकी गिरने के बाद वे अपनी एलएमजी साथ लेकर लौटे थे.

भारत-चीन युद्ध के दौरान युद्ध-भूमि में शौर्य और वीरता का प्रदर्शन करने वाले इस धरतीपुत्र को तब भारत के राष्ट्रपति ने ‘वीरचक्र’ प्रदान किया था. गाँव सरमला, तहसील खौर, ज़िला जम्मू के इस धरती-पुत्र का नाम दिल्ली के उस राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर भी उत्कीर्ण है जिसका लोकार्पण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 फरवरी, 2019 को किया है. हम ऑनरेरी सूबेदार मेजर तुलसीराम जी को सलाम करते हैं. शत्रु के समक्ष प्रदर्शित उनका साहस ऊंचे दर्जे का था. 

श्री तुलसी राम जी का जीवन कब से कब तक आ रहा यह जानकारी मिलनी बहुत जरूरी है. उन्होंने जम्मू कश्मीर के एक सुदूर चुनाव क्षेत्र की अखनूर तहसील के एक सीमांतक (मीर्जिनल) परिवार में जन्म लिया था और और अपने शौर्य के कारण उन्होंने इस जम्मू कश्मीर के इस पिछड़े क्षेत्र का मान बढ़ाया. उनके इस शौर्य ने इस क्षेत्र के कई युवाओं को सेना में जाने के लिए प्रेरित किया और राष्ट्रीय सेवाओं में जाकर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद समाज सेवा में अपना जीवन बिताया.

अक्सर देखा गया है कि सेवानिवृत्त सैनिक समाज-सेवा में भी प्रवृत्त हो जाते हैं. अपने अनुभव के साथ वहां वे अपनी सेवा की गहरी निशानियां छोड़ते चलते हैं. उनके उस जीवन के बारे में जितनी अधिक जानकारी मिल सके उतनी एकत्रित की जानी चाहिए जिसके लिए मैंने ऑनरेरी कैप्टन बी.आर. भगत जी से विशेष अनुरोध किया है. ‘वीरचक्र’ देते समय जो साइटेशन पढ़ी जाती है उसमें तुलसीराम जी के नाम के साथ ‘मेघ’ या ‘भगत’ सरनेम नहीं था. इसकी जानकारी प्राप्त करने में श्री एन.सी. भगत और श्री अनिल भारती (कुमार ए. भारती) जी ने मदद की और श्री बी.आर भगत जी ने स्पष्ट किया कि श्री तुलसीराम जी मेघ भगत हैं.

जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तब पंजाब से एक फौजी अफसर हमारे घर आए थे जिन्होंने बताया था कि उन्होंने सन 1971 के भारत-पाक युद्ध में शत्रु के क्षेत्र में प्रवेश किया था (घर में घुस कर मारा था). काफी आगे जाने के बाद एक बारूदी सुरंग फटने से वे बुरी तरह घायल हुए थे.

मेघों में बहुत से युवा लोग सेना में गए हैं और उन्होंने बेहतरीन सेवाएं दी हैं. यदि उनके बारे में जानकारियाँ इकट्ठी हो सकें तो बहुत अच्छा होगा. बेहतर होगा  कि वे अपने बारे में लिखें, अपने अनुभव के बारे में बताएं ताकि उनकी वीर गाथाों से अन्य युवा और आने वाली पीढ़ी प्रेरणा ले सके.

प्रसंगवश - मेरी जानकारी में आया है कि हमारे समुदाय के एक वीर आत्माराम जी को वीर चक्र मिला है. उनके बारे में विस्तृत जानकारी प्रतीक्षित है.






ये ब्लॉग (लिंक) भी देखिए.