धर्माजी मेघ का जन्म एक साधारण मेघवाल परिवार में हुआ था। आपकी माताजी का नाम नैनी बाई और पिताजी का नाम मदाजी था। मदाजी के चार पुत्र और एक पुत्री थी। धर्माजी चौथी संतान थे।
मदाजी के पुरखे ऊँटों पर वर्तमान पाकिस्तान से सामान लाकर जैसलमेर और जोधपुर के इलाकों में बेचते थे। साथ ही गायें-भैसे और भेड़-बकरी पालते थे। वर्षा के दिनों में खेती-बाड़ी के कामों में संलग्न हो जाते थे। औरतें खेती-बाड़ी के कामों से फारिग होने पर कताई-बुनाई का काम करती थीं। उस समय मारवाड़ में सामंतशाही का जोर था और व्यापक स्तर पर मेघवालों ने और विशेषकर मदाजी के परिवार वालों ने इसके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ रखा था। इसलिए उनके परिवार को कई बार एक गाँव से दूसरे गाँव भटकना पड़ा। वे मारवाड़ के पिलवा, जूडिया, हापाँ और केतु आदि गाँवों में रहे। उनके कुटुंब के कई लोग सामंतशाही और अकाल के कारन मारवाड़ छोड़कर पाकिस्तान के सिंध हैदराबाद और मीरपुर खास में जा बसे थे। कुछ लोग सौराष्ट्र की मिलों में काम करने चले गए। उस समय पाकिस्तान और भारत में लोग आते-जाते रहते थे। धर्माजी भी अपने पिताजी के साथ वहाँ कई बार आये और गए। मदाजी की पहली पत्नी का दो पुत्र और एक पुत्री को जन्म देने के बाद देहांत हो गया। घर बार को संभालने के लिए मदाजी ने सेतरावा निवासी मेघवाल घमाजी की पुत्री नैनी बाई से विवाह कर लिया। नैनी बाई और मदाजी के दो संतान पैदा हुई। जिसमें धर्माजी बड़े थे।
सन 1925 के अकाल में मदाजी के कुटुम्ब के कई लोग जोधपुर आ गए और और जीवन यापन करने लगे। वर्षा के दिनों में गाँवों में जाकर खेती बाड़ी करते। धर्माजी उस समय बहुत छोटे थे। जोधपुर में रहते हुए वे सरकार की सेवा में आ गए और जब दुनिया का दूसरा प्रसिद्ध जंग छिड़ा तो जोधपुर में अंग्रेजों की सेना में 1942 को भर्ती हो गए। वहाँ से वे कलकत्ता गए, और कलकत्ता से उन्हें जर्मनी और जापान के विरुद्ध बर्मा बॉर्डर पर लड़े जा रहे युद्ध मैदान में भेज दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध 1939-1945 के बीच लड़ा गया था, जिसमें वर्तमान राजस्थान के भूभाग से कई मेघ लोग सेना में थे। 01 सितम्बर 1939 से लेकर 02 सितम्बर 1945 तक ब्रिटिश भारतीय सेना बरमा बोर्डेर पर जापान और जर्मनी की हिटलर सेना के विरुद्ध युद्ध रत रही। इस युद्ध में धर्माजी वल्द मदाजी मेघ इसी ब्रिटिश इंडिया आर्मी सेना में सार्जेंट थे। जब बरमा बोर्डेर पर युद्ध तेज हुआ तो उनकी रेजिमेंट के मेजर हुआ करते थे- करिय्प्पा। जो बाद में फील्ड मार्शल जनरल बने। इस सीमा पर 36000 भारत के सैनिक शहीद हुए, 34354 सैनिक घायल हुए और तक़रीबन 67340 युद्ध बंदी बनाये गए।
धर्माजी युद्ध क्षेत्र में बहादुरी से लड़े। युद्ध की गोलियों को बहादुरी से उन्होंने सहा। उनके एक पैर में कुछ गोलियाँ घुस गयी थीं फिर भी वे डटे रहे। बाद में उनकी जांघ में भी गोलियाँ लगीं। जब करियप्पा साहब को ये सब जानकारी हुई तो उन्होंने धर्मा जी को संभवतः डिब्रूगढ़ मिलिट्री हॉस्पिटल में भर्ती कराया वहाँ गोलियाँ निकल नहीं सकीं। अतः धर्माजी को दीमापुर ले जाया गया। जहाँ उनकी जांघ से मांस काटकर गोलियाँ निकाली गयीं। वहां लम्बे समय तक उनका इलाज चला। धर्माजी को पुरस्कृत किया गया। वे बरमा स्टार और पेसिफिक क्लास्प्स से भी नवाजे गए थे। उन्हें कामैग्न अवार्ड भी मिला। (यह मुझे उन्होंने बताया था, उनके कुछ मैडल मेरे पास हैं; जिनमें से कुछ के फोटो नीचे पोस्ट किये गए हैं).
जापान ने 22 जनवरी 1942 में बर्मा पर आक्रमण किया। भारत की फ़ौज की तादाद बहुत कम थी। एक बार तो ऐसा लगा की भारत की सेनाएँ हार जाएँगी। रसद पानी भी ख़त्म था। परन्तु धर्माजी मेघ जैसे जाबांज़ इस हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध में बंदी बनाये जाने से तो अच्छा है कि युद्ध करते करते मर जाएँ। सैनिकों के इस जज्बे का प्रभाव उनके कमांडरों पर पड़ा। भारत से और थलसेना बुलाई गयी। इम्फाल और कोहिमा में जम कर युद्ध हुआ। जापान पीछे हटने को तैयार नहीं था। जापान ने रंगून पर भी अधिकार कर लिया था। परन्तु धर्माजी जैसे वीर सैनिकों की बदौलत पासा पलट गया और रंगून को भारतीय सैनिकों ने जीत लिया। उधर अमेरिका ने जापान पर बमबारी कर दी। मुझे धर्माजी ने बताया था कि उनके पास युद्ध के पूरे साजो सामान भी नहीं थे। अपने आत्मविश्वास और हौसले से तथा अमेरिकी कार्रवाई की मदद से वे जीत सके थे।
इसी समय धर्माजी मेघ बर्मा और जापान के सैनिकों के संपर्क में आये थे और बौद्ध धर्म की उन्हें जानकारी हुई। जिसे वे हमें यदाकदा बताया करते थे। अमेरिकी सैनिकों के प्रति उनका बड़ा आदर भाव था क्योंकि उनके साथ अमेरिकन सैनिक भी थे जिन्होंने रसद ख़त्म होने पर उन्हें थोड़ा-बहुत डिब्बा बंद रसद दिया था।
सन 1942 में धर्माजी जर्मन-जापान के विरुद्ध 'मिड वे' युद्ध मैदान में थे। यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा जापान पर अणुबम गिराने के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी पहले ही घुटने टेक चुका था। धर्माजी 1942 से लेकर 1945 तक युद्ध भूमि में रहे। दुश्मनों से लड़ते रहे। कई दिनों तक भूखे प्यासे युद्ध करते रहे। उन्होंने बताया कि प्यास बुझाने के लिए पेट्रोल की घूँट भी सैनिकों ने लिए। ब्रिटिश भारत आर्मी का रसद भी ख़त्म था। अमेरिकन सेना के रसद ने उनकी मदद की।
युद्ध 6 वर्ष से ज्यादा चला। धर्माजी 1942 से 1945 तक युद्ध के मिड वे में डटे रहे। इतनी लम्बी अवधि तक युद्ध मैदान में धर्माजी जैसे शूरवीर ही टिक सके। बात साफ है कि बहादुरी किसी कौम विशेष की बपौती नहीं है। मेघों की बहादुरी ने समय-समय पर वो परवान चढ़ाये हैं जो बहुत कम वीरों को प्राप्त होते हैं।
संभवतः 1946-47 में धर्माजी अंग्रेजी सेना से वापस मारवाड़ में आ गये। देश आजाद हुआ तो उसके बाद पाकिस्तान से 1947-48 में कश्मीर को लेकर युद्ध हुआ। सेना की भर्ती हुई। बहादुर धर्माजी घर बैठे नहीं रह सकते थे। वे दुबारा आर्मी सर्विसेज कोर्प्स (atillery) में 17 जुलाई 1948 को भर्ती हो गए। उनके नम्बर थे- 6437956 और कश्मीर के पाकिस्तान बॉर्डर पर युद्धरत रहे। युद्ध विराम के बाद सेवा निवृत्त हो वे फिर मारवाड़ आ गये। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उनका आइ डी नम्बर था-557879.
अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने से पहले धर्माजी जोधपुर रियासत में बतौर सवार थे। रियासत के समय सैनिक/सिपाही को सवार कहा जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर विभिन्न रियासतों या प्रेसिडेंसी से सैनिक इकट्ठे कर अंग्रेजों ने इम्पीरिअल रेजिमेंट बनायीं थी। जिसमे धर्माजी मेघ भी एक सैनिक थे। उन्हें सार्जेंट कहा जाता था। इस प्रकार से रियासत के मार्फ़त ही वे अंग्रेज सेना के अंग बने थे।
मदाजी के पुरखे ऊँटों पर वर्तमान पाकिस्तान से सामान लाकर जैसलमेर और जोधपुर के इलाकों में बेचते थे। साथ ही गायें-भैसे और भेड़-बकरी पालते थे। वर्षा के दिनों में खेती-बाड़ी के कामों में संलग्न हो जाते थे। औरतें खेती-बाड़ी के कामों से फारिग होने पर कताई-बुनाई का काम करती थीं। उस समय मारवाड़ में सामंतशाही का जोर था और व्यापक स्तर पर मेघवालों ने और विशेषकर मदाजी के परिवार वालों ने इसके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ रखा था। इसलिए उनके परिवार को कई बार एक गाँव से दूसरे गाँव भटकना पड़ा। वे मारवाड़ के पिलवा, जूडिया, हापाँ और केतु आदि गाँवों में रहे। उनके कुटुंब के कई लोग सामंतशाही और अकाल के कारन मारवाड़ छोड़कर पाकिस्तान के सिंध हैदराबाद और मीरपुर खास में जा बसे थे। कुछ लोग सौराष्ट्र की मिलों में काम करने चले गए। उस समय पाकिस्तान और भारत में लोग आते-जाते रहते थे। धर्माजी भी अपने पिताजी के साथ वहाँ कई बार आये और गए। मदाजी की पहली पत्नी का दो पुत्र और एक पुत्री को जन्म देने के बाद देहांत हो गया। घर बार को संभालने के लिए मदाजी ने सेतरावा निवासी मेघवाल घमाजी की पुत्री नैनी बाई से विवाह कर लिया। नैनी बाई और मदाजी के दो संतान पैदा हुई। जिसमें धर्माजी बड़े थे।
सन 1925 के अकाल में मदाजी के कुटुम्ब के कई लोग जोधपुर आ गए और और जीवन यापन करने लगे। वर्षा के दिनों में गाँवों में जाकर खेती बाड़ी करते। धर्माजी उस समय बहुत छोटे थे। जोधपुर में रहते हुए वे सरकार की सेवा में आ गए और जब दुनिया का दूसरा प्रसिद्ध जंग छिड़ा तो जोधपुर में अंग्रेजों की सेना में 1942 को भर्ती हो गए। वहाँ से वे कलकत्ता गए, और कलकत्ता से उन्हें जर्मनी और जापान के विरुद्ध बर्मा बॉर्डर पर लड़े जा रहे युद्ध मैदान में भेज दिया।
धर्माजी युद्ध क्षेत्र में बहादुरी से लड़े। युद्ध की गोलियों को बहादुरी से उन्होंने सहा। उनके एक पैर में कुछ गोलियाँ घुस गयी थीं फिर भी वे डटे रहे। बाद में उनकी जांघ में भी गोलियाँ लगीं। जब करियप्पा साहब को ये सब जानकारी हुई तो उन्होंने धर्मा जी को संभवतः डिब्रूगढ़ मिलिट्री हॉस्पिटल में भर्ती कराया वहाँ गोलियाँ निकल नहीं सकीं। अतः धर्माजी को दीमापुर ले जाया गया। जहाँ उनकी जांघ से मांस काटकर गोलियाँ निकाली गयीं। वहां लम्बे समय तक उनका इलाज चला। धर्माजी को पुरस्कृत किया गया। वे बरमा स्टार और पेसिफिक क्लास्प्स से भी नवाजे गए थे। उन्हें कामैग्न अवार्ड भी मिला। (यह मुझे उन्होंने बताया था, उनके कुछ मैडल मेरे पास हैं; जिनमें से कुछ के फोटो नीचे पोस्ट किये गए हैं).
जापान ने 22 जनवरी 1942 में बर्मा पर आक्रमण किया। भारत की फ़ौज की तादाद बहुत कम थी। एक बार तो ऐसा लगा की भारत की सेनाएँ हार जाएँगी। रसद पानी भी ख़त्म था। परन्तु धर्माजी मेघ जैसे जाबांज़ इस हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध में बंदी बनाये जाने से तो अच्छा है कि युद्ध करते करते मर जाएँ। सैनिकों के इस जज्बे का प्रभाव उनके कमांडरों पर पड़ा। भारत से और थलसेना बुलाई गयी। इम्फाल और कोहिमा में जम कर युद्ध हुआ। जापान पीछे हटने को तैयार नहीं था। जापान ने रंगून पर भी अधिकार कर लिया था। परन्तु धर्माजी जैसे वीर सैनिकों की बदौलत पासा पलट गया और रंगून को भारतीय सैनिकों ने जीत लिया। उधर अमेरिका ने जापान पर बमबारी कर दी। मुझे धर्माजी ने बताया था कि उनके पास युद्ध के पूरे साजो सामान भी नहीं थे। अपने आत्मविश्वास और हौसले से तथा अमेरिकी कार्रवाई की मदद से वे जीत सके थे।
इसी समय धर्माजी मेघ बर्मा और जापान के सैनिकों के संपर्क में आये थे और बौद्ध धर्म की उन्हें जानकारी हुई। जिसे वे हमें यदाकदा बताया करते थे। अमेरिकी सैनिकों के प्रति उनका बड़ा आदर भाव था क्योंकि उनके साथ अमेरिकन सैनिक भी थे जिन्होंने रसद ख़त्म होने पर उन्हें थोड़ा-बहुत डिब्बा बंद रसद दिया था।
सन 1942 में धर्माजी जर्मन-जापान के विरुद्ध 'मिड वे' युद्ध मैदान में थे। यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा जापान पर अणुबम गिराने के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी पहले ही घुटने टेक चुका था। धर्माजी 1942 से लेकर 1945 तक युद्ध भूमि में रहे। दुश्मनों से लड़ते रहे। कई दिनों तक भूखे प्यासे युद्ध करते रहे। उन्होंने बताया कि प्यास बुझाने के लिए पेट्रोल की घूँट भी सैनिकों ने लिए। ब्रिटिश भारत आर्मी का रसद भी ख़त्म था। अमेरिकन सेना के रसद ने उनकी मदद की।
युद्ध 6 वर्ष से ज्यादा चला। धर्माजी 1942 से 1945 तक युद्ध के मिड वे में डटे रहे। इतनी लम्बी अवधि तक युद्ध मैदान में धर्माजी जैसे शूरवीर ही टिक सके। बात साफ है कि बहादुरी किसी कौम विशेष की बपौती नहीं है। मेघों की बहादुरी ने समय-समय पर वो परवान चढ़ाये हैं जो बहुत कम वीरों को प्राप्त होते हैं।
संभवतः 1946-47 में धर्माजी अंग्रेजी सेना से वापस मारवाड़ में आ गये। देश आजाद हुआ तो उसके बाद पाकिस्तान से 1947-48 में कश्मीर को लेकर युद्ध हुआ। सेना की भर्ती हुई। बहादुर धर्माजी घर बैठे नहीं रह सकते थे। वे दुबारा आर्मी सर्विसेज कोर्प्स (atillery) में 17 जुलाई 1948 को भर्ती हो गए। उनके नम्बर थे- 6437956 और कश्मीर के पाकिस्तान बॉर्डर पर युद्धरत रहे। युद्ध विराम के बाद सेवा निवृत्त हो वे फिर मारवाड़ आ गये। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उनका आइ डी नम्बर था-557879.
अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने से पहले धर्माजी जोधपुर रियासत में बतौर सवार थे। रियासत के समय सैनिक/सिपाही को सवार कहा जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर विभिन्न रियासतों या प्रेसिडेंसी से सैनिक इकट्ठे कर अंग्रेजों ने इम्पीरिअल रेजिमेंट बनायीं थी। जिसमे धर्माजी मेघ भी एक सैनिक थे। उन्हें सार्जेंट कहा जाता था। इस प्रकार से रियासत के मार्फ़त ही वे अंग्रेज सेना के अंग बने थे।
धर्माजी मेघ ने सेतरावा गाँव में 1979में बड़े पैमाने पर आंबेडकर जयंती का आयोजन किया।a group photo. Dharmaji Megh is in-between group. Me sitting-1979
जुझारू धर्माराम जी-
बेगारी और धर्माराम जी मेघवाल
सन 1925 के आस-पास अकाल पड़ा, इससे काफी जन धन की हानि हुई. धर्माजी का परिवार जोधपुर आया, पर वहां से वर्षात के मौसम में खेती-बाडी हेतु गांवों में जाते रहते थे. गांवों में भयंकर अकाल के बाद वर्षा होने पर भी साधनों के आभाव में खेतों को जोतना दूभर होता था. जमीनों के मालिकाना हक की भी कोई खास व्यवस्था नहीं होती थी. लोग जहाँ-तहां खेती कर कर लेते थे और बस्तियां बसा लेते थे. पूर्व में धर्माजी का परिवार हापाँ गान्व में आ बसा था. यह गाँव कुछ राजपूत परिवारों और कुछ मेघवाल परिवारो के एक साथ वहां आने और वहां बसने के कारण ही आबाद हुआ था. पहले यहाँ कोई बस्ती नहीं थी . ये परिवार जैसलमेर - बाड़मेर सीमा पर बसे 'हापाँ की ढाणी' नामक बस्ती से घूमते हुए पीलवा के रास्ते यहाँ आकर बसे थे. अत इस नयी बस्ती का नाम भी उन्होंने हापाँ रख लिया था.
जमीने होने पर भी अकालों में मवेशी खो चुके परिवार साधन विहीन होने से खेती नहीं कर सकते थे. अत वे दूसरों के खेतों पर काम करने हेतु मजबूर होते थे. कई लोग साल-छ माही के लिए ऐसा करते थे तो कई लोग लम्बे समय तक इसमे लगे रहते थे. खेत जोतने वाला यानि हल चलाने वाला 'हाली (हाळी)' कहा जाता था. चाहे वह अपने लिए हल चलाये या दूसरे के लिये, उसके सम्बोधानार्थ 'हाळी' शब्द प्रयुक्त होता था. इस प्रकार से कृषि कार्यों में नियोजित व्यक्ति 'हाळी' कहा जाता था. साधारनतया हाली की अपनी जमीन होती थी. परन्तु गरीबी या अन्यान्य कारणों से वह या तो उसे खो चूका होता था या उसका उपभोग नहीं कर सकता था.
खेती-बाडी का काम लगभग छ महीने चलता था, अत ऐसे व्यक्ति को 'छमाहीदार' भी कहा जाता था. धीरे धीरे यह रीति उनके लिए बंधन का कारण बन गयी और ज्यादातर मेघवालों के परिवार इसमे पिसने लगे. उनका भयंकर शोषण होता था.इससे छुटकारा पाने के लिए मेघवालों ने कई जगहों पर सामूहिक विरोध किया. उसके फलस्वरूप भी उनका एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन होता रहता था. जैसलमेर, जोधपुर व बाड़मेर इलको में सर्वाधिक हल चल थी, जिसमें धर्माजी के पिताजी मदाजी और उनके बहनोई उम्मेदा जी अग्रणीय थे.
इससे कैसे छुटकारा पायें , इस पर जगह जगह बहुत विचार विमर्श व पंचायते हुआ करती थी. जो लोग कर्जे से दबने के कारण जमीने खो चुके थे या हाली के नारकीय जीवन से छुटकारा नहीं पा सकते थे , उनके लिए मेघवालों की पंचायतें सामूहिक प्रयासों से आवश्यक धन बल की भी सहायता करती थी. धर्माजी नौकरी में आ चुके थे, अत मदाजी ऐसे कामों हेतु पंचायतों को उन्मुक्त रूप से धन भी उपलब्द्ध करवाते थे . उन्होने अपने कई रिश्ते दारों और अन्य मेघवाल परिवारों को इस बंधन से मुक्त करवाया .
कई बार उनको मुक्त करवाने में बहुत बड़ा झगडा फसाद हो जाया करता था. सेतरावा, हापाँ और केतु आदि गांवों में हुए संघर्ष में धर्माजी आगीवान रहे थे . हापों आदि में इस बेगारी उन्मूलन में उनके उल्लेखनीय योगदान पर अलग से लिखा गया है. यहाँ उनके सन्दर्भ में जो बात कहनी है वह सिर्फ इतनी है कि मेघवालों को हाली जैसे शोषण कारी चक्र के विरुद्ध लाम बद्ध करने और उसे एक मुकाम तक पहुँचाने मे धर्माजी की न केवल सक्रीय भूमिका थी, बल्कि एक प्रकार से उनका परिवार इस में आगिवान था.
सम्मान और स्वाभिमान का जीवन-
सन 1950 में धर्मरामजी आर्मी सप्लाई कोर्प्स(आर्टिलरी) की सेवा से वापस आये। उस समय राजस्थान में बेगारी व छुआछूत उन्मूलन तथा सामंतशाही के विरुद्ध मेघवालों का आन्दोलन पूरे जोर और जोश में था। मारवाड़ में मेघवालों ने सब जगह अपनी पञ्चायतों के माध्यम से इसे सख्ती से लागू करवाया था। मेघवालों में जो बाम्भ (बेगारी) करते थे और जो गंदे धंधे करते थे, उन पर मेघवालों की पंचायतों के कठोर रवैये के कारण राजस्थान में 1952 में पूर्ण प्रतिबन्ध लग गया। इसमें पश्चिमी राजस्थान में तिन्वरी के मेघवाल उम्मेदारामजी कटारिया की सक्रिय भूमिका थी। वे मेघवालों के 84 खेड़ों के सर्वमान्य नेता थे। सामाजिक सुधार के इन आंदोलनों में अलग अलग पट्टियों में अलग अलग नेता उभरे थे। मेघवालों में जन जागरण को लेकर कई युवा और समाज सेवी घर घर जाकर प्रचार करने लगे। इस समाज सुधार के आन्दोलन को सफल बनाने हेतु उस समय कई लोग उस समय राजनीती में भी आये और कई साधु-सन्यासी भी बने। अजमेर के गोकुलदास जी, सेतरावा के पिपाराम जी आदि इस समय उभरे प्रमुख लोग थे। धर्माजी भी इस आन्दोलन में पूरी तरह से शरीक हो गए और घर-घर एवं ढ़ाणी-ढाणी जाकर बेगारी एवं गंदे धंधों के प्रतिकार करने की चेतना का संचार करने लगे। वे इस प्रतिकार आन्दोलन में कुछ वर्षो तक सक्रिय रूप से जुटे रहे। उधर मारवाड़ में लगातार अकाल पड़ रहे थे। इन परिस्थितियों ने धर्मारामजी को दुबारा कोई जीविका ढूंढने हेतु मजबूर किया। स्वाभिमानी धर्मारामजी कोई भी ऐसा-वैसा धंधा नहीं कर सकते थे। वे कोई उपयुक्त सम्मानजनक रोजगार ढूंढ़ने लगे। उनके भाईयों ने जोधपुर में पत्थर की खदानों को लीज पर लिया और पत्थर का व्यवसाय करने लगे।
उस समय मारवाड़ में अकाल के समय टिड्डियों का भयंकर प्रकोप होता था। जब भी टिड्डियों की महामारी आती, उससे निपटने के कोई साधन नहीं होते थे। अकाल में लोग टिड्डियों को भून कर खाते भी थे। अंग्रेजों ने 1939 के आस-पास इसकी रोकथाम हेतु जोधपुर में एक टिड्डी महकमा लगभग खोल रखा था। एक तरह से यह टिड्डी नियंत्रण और टिड्डी चेतावनी का दफ्तर था। राजस्थान और गुजरात इसकी निगरानी का क्षेत्र था। धर्मारामजी इस दफ्तर में असिस्टेंट ड्राईवर के रूप में भर्ती हो गए। टिड्डी उन्मूलन और उसकी रोकथाम हेतु जोधपुर से ट्रकों में सामान भरकर राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, नागोर, पाली और गुजरात के प्रभावित क्षेत्रों में सामान सप्लाई किया जाता था। धर्मरामजी की ड्यूटी अधिकांशतः जैसलमेर के रूट पर होती थी। उनकी ट्रक का ड्राइवर उसी इलाके का एक राजपूत था। इलाके में भयंकर छुआछात थी। ड्राइवर भी भेदभाव व छुआछात करता था। इसकी शिकायत की, पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। ड्राइवर के पास में ही असिस्टेंट ड्राइवर बैठा करता था। अर्थात धर्मारामजी ड्राइवर के पास ही बैठते थे। छुआछूत के कारण ड्राइवर को यह अच्छा नहीं लगता था। दूसरा, उस समय परिवहन के साधन बहुत कम थे। लोग लम्बी दूरी का सफ़र भी पैदल ही चलकर तय करते थे। रास्ते में कोई राहगीर मिल जाता तो उसे ट्रक में बिठा लेते थे। ज्यादातर समय ड्राइवर ही गाड़ी चलाता था। कभी-कभी धर्मरामजी भी गाड़ी चलाते थे। ड्राइवर को लालच आ गया। वह कभी-कभी जब कोई राहगीर मिलता तो धर्माजी को पीछे बैठने को कहता। पहले-पहल तो धर्माजी ने ऐसा कर लिया परन्तु जब उनको मालूम पड़ा कि ड्राइवर राहगीर को ट्रक की आगे की सीट पर बैठाता है और उससे पैसे लेता है तो इसका विरोध करना शुरू कर दिया। महकमे में भी शिकायत की गई। कोई विशेष कार्यवाही नहीं हुई।
एक बार वे जोधपुर से जैसलमेर जा रहे थे। सवारी मिलने पर ड्राइवर ने धर्माजी को पीछे बैठने का कहा। आपस में कहा-सुनी हुई। तकरार झगड़े में बदल गयी। धर्माजी ने ड्राइवर को पीट दिया। ऐसा एक दो बार हुआ। महकमे में शिकायत की गयी परन्तु कोई हल नहीं निकला तो आखिर धर्मारामजी ने वह नौकरी भी छोड़ दी।
आजादी के बाद मिलिट्री की नौकरी छोड़ने के बाद धर्मारामजी जोधपुर पुलिस में भी सिपाही के रूप में नौकरी करने लगे। कुछ समय जोधपुर पदस्थापन के बाद उनकी पोस्टिंग ग्रामीण इलाके के फलोदी क़स्बे के थाने में हो गयी। वहां पर भयंकर भेदभाव और छुआछुत व्याप्त थी। मेघवालों सहित सभी निम्न कही जाने वाली जातियां इस बुराई से पीड़ित थी। बेगारी और गंदे धंधे करने या न करने का निर्णय पूर्णतयः आदमी के ऊपर निर्भर करता था। मेघवालों ने इन सब का जबरदस्त निषेध कर रखा था। वे कोई ऐसा काम नहीं करते थे फिर भी उनके साथ सार्वजनिक स्थानों, होटलों और कुओं आदि पर भेदभाव पूर्ण दुर्व्यवहार और छुआछूत बरती जाती थी। वे कुँए पर जहाँ सवर्ण पानी भरते थे, वहां पानी नहीं भर सकते थे बल्कि जहाँ जानवर आदि पानी पीते थे , वहां खैली में पानी भरते थे। उन्होंने थाने से जाकर जायजा लिया और खुद ने जहाँ से सवर्ण जातियां पानी भरती थी, वहां से पानी भरना शुरू किया। धर्माजी ने मेघवालों आदि को समझाया कि यह बराबरी के हक़ की बात है। बेगारी और गंदे धन्धे छोड़ना बहुत कुछ आपके वश में था पर छुआछूत और भेदभाव मिटाना बहुत कुछ आप पर नहीं निर्भर करत्ता है। इसलिए जो लोग भेदभाव करते हैं, उनके दिमागों को ठीक करना जरूरी है। यह बीमारी भेदभाव करने वालों के दिमाग में है। कुछ दिन तो ठीक-ठाक रहा पर ब्राह्मण आदि सवर्ण जातियों में सुगबुगाहट शुरू हो गयी और उनमें रोष पैदा हो गया।
क़स्बे में हलचल मच गयी। कई लोग पक्ष में और कई लोग विरोध में हो गए। धर्मा रामजी ने वहाँ के मेघवालों और दलित लोंगों को उत्साहित किया। एक दिन धर्मरामजी और उनके सहयोगी बराबरी से पानी भर रहे थे। सवर्ण लोग लामबद्ध होकर आये और धर्माजी पर हमला कर दिया।
धर्माजी मल्ल-युद्ध और लाठी चलाने में पारंगत थे। पकड़ पकड़ कर कईयों को मारा। बर्तन-भांडे फूट गए। अचानक किसी ने उनके ऊपर लाठी से वार कर दिया। हाथ से वार को रोका, तब तक उनके ललाट में लग गई। खून निकलता देख लोग तितर-बितर हो गए.
धर्माजी थाने आये और केस दर्ज किया काफी समय तक केस चला। कुछ लोग पक्ष द्रोही (hostile) हो गए । फिर भी वे वहां पर छुआछूत उन्मूलन हेतु लोगों को प्रेरित करते रहे और खुद भी लगे रहे। ऐसी हालात में कुछ महीनों के बाद नौकरी से इस्तीफा देकर घर आ गए।
धर्मरामजी के पिताजी श्री मदारामजी के देहावसान के बाद सभी भाई-बहिनों की शादी होने के बाद उनकी शादी पाली देवी से हुई। अक्सर उसे पालु कहते थे। शादी के समय उनके बड़े भाई ने अपने हाथ से बहु के लिए वरी का सालू और पवरी बुनी, जिसमें चांदी के तार बुने गए थे। वे उस समय सेतरावा अपने ननिहाल में थे। नई नई शादी के बाद पालि देवी औरतों के साथ गांव के कुंए पर पानी भरने गई। वह नया पीला पोमचा (ओढना) ओढ कर नख शिख तक गहने पहन कर गयी थी। एक ही कुंए पर सभी जाति के लोग अलग अलग पानी भरते थे।
जब राजपूत औरतों ने सजी धजी नई नवेली दुल्हन को नए कपड़ों और पीले ओढ़ने में देखा तो उनका गुस्सा सातवें आसमान चढ़ गया। वे मेघवाल औरतों को भला-बुरा कहने लगी। उनके पूछने पर बताया कि यह नैनी बाई के बेटे धर्माजी की बहु है। धर्माजी के सभी भाई बलिष्ठ और साहसी थे। धर्माजी के अक्खड़ और स्वाभिमानी स्वाभाव के चर्चे गाँव में पहले ही बहुत हो चुके थे। धर्माजी और उनके परिवार से कोई सीधे-सीधे पंगा भी नहीं लेना चाहता था। फिर भी सवर्ण औरतों ने चेतावनी के लहजे में कहा-- 'अगर एक मेघवाल औरत पीला ओढ़ना और गहने पहन कर आयेगी तो हम क्या पहनेगी? मेघवालों में और हमारे में फर्क ही क्या रह जायेगा?'
सभी मेघवाल औरतें सहम गयीं। कुंए से पानी भर कर मटके अपने-अपने घर रख कर धर्माजी के घर इकट्ठी हुई और कुंए पर हुई कहासुनी का वृतांत सुनाया और बोली की बिनणी की वजह से बेरे (कुंए) पर झगडा हो गया। अब उन्हें पानी भरने जाने में भी डर लागता है। धर्माजी ने उन औरतों का हौसला बंधाया और कहा कि कोई किसी को गहने और ओढ़ने से नहीं रोक सकता और कोई किसी को पानी भरने से भी नहीं रोक सकता। मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। ऐसा कहते हुए खुद घड़ा लेकर पाली देवी और कुछ औरतों को साथ लेकर कुंए पर पानी भरने गए।
मेघों
की ब्रिटिश सेना में भर्ती
होने से उनके जीवन के विभिन्न
क्षेत्रों में महत्त्व पूर्ण
तबदीली आई। धर्माजी मेघ के
परिवार में यह स्पष्ट
दिखती थी। फ़ौज में भर्ती होने
से अनिवार्य रूप से उन्हें
शिक्षा का लाभ मिलाना शुरू
हुआ। धर्माजी बताते थे कि उनके
ननिहाल में एक पोसला (पाठशाला)
थी।
जो जैन मंदिर के प्रांगण में
चलती थी और कुछ जैन और बनिए
उसमें लिखाई पढाई
सीखते थे। दूसरे लोगों को
नजदीक ही नहीं फटकने दिया जाता
था। परन्तु जब दूसरे विश्वयुद्ध
में वे ब्रिटिश की रॉयल पोइनॆर
कोर में भर्ती हुए तो उन्हें
अंग्रेज़ों ने रोमन
में पढाया। युद्धरत रहते हुए
वे रोमन से हिंदी और अंग्रेजी
की वर्ण माला सीखे तथा युद्ध
समाप्ति के बाद पढ़ने-लिखने
पर विशेष ध्यान दिया और जब 23
अप्रेल
1947
को
फौजी सेवा से निवृत हुए तब तक
वे सेना चौथी क्लास पास कर
चुके थे। इस प्रकार से उन्हें
शिक्षा प्राप्ति का सुअवसर
आजादी से पहले मिला। जिसका
फायदा उन्हें और उनके समाज
को कई जगहों पर मिला। उनमें
साहस और आत्मबल तथा आत्मगौरव
और स्वाभिमान रस-बस
गया। यह सैन्य सेवा का प्रत्यक्ष
प्रभाव था।
सैन्य
सेवा(Military
Service) से
उनके परिवार को आर्थिक सुरक्षा
भी मिली। इससे उनका परिवार
और सम्बन्धी पूर्णतः आत्म
निर्भर हो गए। युद्धरत सैनिकों
के परिवारों को ब्रिटिश सरकार
प्रतिमाह नियमित रूप से मनीआर्डर
द्वारा उनके घर तनख्वाह की
राशि भेजा करती थी।
धर्माजी की तनख्वाह के उस समय
के 18
रुपये
उनकी मां नैनी बाई के नाम से
जोधपुर पोस्ट ऑफिस में भेजे
जाते थे। राज के आदमी द्वारा
इतला मिलने पर उनकी मां पोस्ट
ऑफिस से यह राशि
प्राप्त करती थी। उस समय चांदी
के कलदार रुपये प्रचलन में
थे। प्रतिमाह मिलने वाली यह
रकम उनके परिवार और सम्बन्धियों
के लिए आवश्यकता से बहुत अधिक
होती थी। धर्माजी के ननिहाल
में उनके नाना-
नानी
की अकाल मृत्यु हो जाने से उस
परिवार की देखभाल का दायित्व
भी धर्माजी की माँ नैनी बाई
पर आ पड़ा। अतः वह अपने पीहर आ
गयी और अपने पिताजी के परिवार
को भी संभालने लगी। जोधपुर
से करीब 125
किमी
दूर सेतरावा में कोई पोस्ट
ऑफिस नही होने के कारन उन्हें
मनी आर्डर लेने तो जोधपुर ही
जाना पड़ता था। जहाँ धर्माजी
के भाई रहते थे। बाद में शेरगढ़
में पोस्ट ओफिस खुला तो फिर
वहाँ जाकर तनख्वाह लाती। इससे
उनका परिवार आर्थिक रूप से
आत्म निर्भर और सबल हो गया।
यह फ़ौज की नौकरी का दूसरा बड़ा
सुपरिणाम था।
आर्थिक
आत्म निर्भरता प्राप्त होने
से वे मारवाड़ में बेगार प्रथा
के विरुद्ध बिगुल बजाने में
भी समर्थ हो सके। ब्रिटिश सेना
की नौकरी ने उनके परिवार में
तथा उन जैसे परिवारों में
बेगारी छोड़ कर स्वतंत्र मन
माफिक व्यवसाय करने के मार्ग
को प्रशस्त किया। इससे मेघों
को निम्न या हीन व्यवसायगत
बंदिशों से अपने को स्वतंत्र
करने में बड़ी मदद और सुरक्षा
मिली।
ब्रिटिश
सेना में रहते हुए उन्होंने
कई नौजवानों को फ़ौज में भर्ती
होने हेतु प्रेरित किया और
कई लोगों को सेना में भर्ती
करवाया। जिनमे मेघवालों के
साथ ही साथ राजपूत आदि जातियों
के नौजवान थे। उस समय कुछ जाति
आधारित रेजिमेंट भी थी। ब्रिटिश
सरकार ने मारवाड़
के मेघवालों की सैन्य भर्ती
उनके अदम्य साहस,
वीरता
और युद्ध भूमि में विषम
परिस्थितियों में भी लम्बे
समय तक डटे रहने के कारण बढ़ा
दी थी। कुछ प्रदेशों यथा असम,
पंजाब
आदि जगहों से ज्यादा मारवाड़
के राजपूतों और मेघवालों को
पहले वरीयता दी जाने लगी।
इस प्रकार जो जो मेघवाल सेना
में भर्ती होने हेतु इच्छुक
होता और शारीरिक मापदंड पूरा
करता उसे अंग्रेज सेना की किसी
न किसी भारतीय रेजिमेंट में
भर्ती कर लिया जाता।
ब्रिटिश
सेना का अंग होने से
उनका और उनके परिवार का मान
और सम्मान भी बढ़ा।
धर्माजी की बहादुरी और योगदान चिरस्मरणीय है।
मेघ लोग एक बहादुर कौम रही है। महाराजा गुलाब सिंह के समय के कश्मीर और पंजाब के मेघों का भी मैंने प्रमाण सहित उद्धरण दिया था कि किस तरह से मेघों की सैनिक बहादुरी से महाराजा युद्धों में जीते थे और उन्होंने अपनी सेना में मेघों की नफ़री बढ़ायी थी। यह 1857 और प्रथम विश्वयुद्ध की कई डिस्चपैच में उल्लेखित है। मेरा निवेदन उन सभी से है जो इस समाज से जुड़े हैं कि वे उस इतिहास को उजागर करें और उन वीर पुरुषों पर फ़ख़्र करें। यह काम बहुत ही पेचीदा और कठिन है। 'जम्मू एंड कश्मीर टेरिटरी: ज्योग्राफिकल अकाउंट' नामक पुस्तक फ्रेडेरिक ड्रियू ने 1875 में लन्दन से प्रकाशित की। 'द पंजाब, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस एंड कश्मीर' नामक पुस्तक 1916 में सर James Douie ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित की। इन दोनों पुस्तकों में मेघ सैनिकों का जिक्र है और उनकी बहादुरी की प्रशंसा है। ये महत्वपूर्ण पुस्तकें 1857 के गदर में और प्रथम विश्वयुद्ध में मेघों की बहादुरी पर गौरवपूर्ण टिप्पणियाँ अंकित करती हैं। जो लोग मेघों के जज्बात और बहादुरी पर टीका टिपण्णी करते हैं, उन्हें इनको देखना चाहिए और अपने मतिभ्रम को दूर करना चाहिए। It is only conversation to Hinduism, which degraded Meghs, none else. Hope new generation will think about it seriously.
(Countributed by Sh. Tararam s/o Sh. Dharmaram Megh)
(रामसा कडेला मेघवंशी द्वारा विशेष नोट:
मेघ लोग एक बहादुर कौम रही है। महाराजा गुलाब सिंह के समय के कश्मीर और पंजाब के मेघों का भी मैंने प्रमाण सहित उद्धरण दिया था कि किस तरह से मेघों की सैनिक बहादुरी से महाराजा युद्धों में जीते थे और उन्होंने अपनी सेना में मेघों की नफ़री बढ़ायी थी। यह 1857 और प्रथम विश्वयुद्ध की कई डिस्चपैच में उल्लेखित है। मेरा निवेदन उन सभी से है जो इस समाज से जुड़े हैं कि वे उस इतिहास को उजागर करें और उन वीर पुरुषों पर फ़ख़्र करें। यह काम बहुत ही पेचीदा और कठिन है। 'जम्मू एंड कश्मीर टेरिटरी: ज्योग्राफिकल अकाउंट' नामक पुस्तक फ्रेडेरिक ड्रियू ने 1875 में लन्दन से प्रकाशित की। 'द पंजाब, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस एंड कश्मीर' नामक पुस्तक 1916 में सर James Douie ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित की। इन दोनों पुस्तकों में मेघ सैनिकों का जिक्र है और उनकी बहादुरी की प्रशंसा है। ये महत्वपूर्ण पुस्तकें 1857 के गदर में और प्रथम विश्वयुद्ध में मेघों की बहादुरी पर गौरवपूर्ण टिप्पणियाँ अंकित करती हैं। जो लोग मेघों के जज्बात और बहादुरी पर टीका टिपण्णी करते हैं, उन्हें इनको देखना चाहिए और अपने मतिभ्रम को दूर करना चाहिए। It is only conversation to Hinduism, which degraded Meghs, none else. Hope new generation will think about it seriously.
A portrait painted photo found in my father's papers as told by my oldest relative that this photo is of Madaji when he used to headed Kataars. |
(Countributed by Sh. Tararam s/o Sh. Dharmaram Megh)
(रामसा कडेला मेघवंशी द्वारा विशेष नोट:
ताराराम जी धर्माराम जी के बेटे हैं। जहाँ धर्माराम जी ने देश व समाज की अस्मिता की रक्षा करके अपने जीवन को प्रेरणादायी बना दिया वहीं श्री ताराराम जी ने भी मेघों का इतिहास- "मेघवंश इतिहास और संस्कृति" लिख कर अपने समुदाय पर उपकार किया है। इनके परिवार को हमारा नमन और साधुवाद. जय मेघवीर धर्माराम जी और सभी मेघ वीरों की। जय मेघ)
No comments:
Post a Comment